‘दुःख का अधिकार’ कहानी से स्पष्ट होता है कि पैसे की कमी और अभाव आदमी को दुःख मनाने का अवसर भी नहीं देने देते। जिस प्रकार बुढ़िया एक गरीब महिला थी और वह पैसे की कमी तथा अभावों से ग्रस्त थी, इसी कारण उसके आसपास के समाज के लोग उसके जवान बेटे की मृत्यु के बाद उसके दुःख में संवेदना जताने की जगह खरबूजे बेचने पर उसके प्रति तानाकशी करने लगे। यदि तृद्धा कोई अमीर संपन्न महिला होती तो सभी लोग उसके बेटे की मृत्यु के बाद उसके दुःख में शामिल होने उसके घर आते, लेकिन वृद्धा के साथ ऐसा नहीं हुआ क्योंकि वह एक गरीब महिला थी।
लेखक ने इस पाठ में एक उदाहरण भी दिया है कि कैसे एक सेठ के जवान बेटे की मृत्यु हो गई और सेठानी बीमार पड़ गई तो सेठ के घर पर जवान बेटे की मृत्यु के प्रति संवेदना व्यक्त करने के लिए लोगों की भीड़ लगी रहती थी। ऐसी ही घटना के साथ भी हुई लेकिन वह एक गरीब महिला थी इसी कारण कोई उसके प्रति संवेदना और दुख प्रकट नहीं कर रहा था।
इन सभी बातों से स्पष्ट है कि लोग केवल सामाजिक हैसियत देखकर ही अपने प्रतिक्रिया करते हैं। गरीब लोगों के दुःख में कोई शामिल नहीं होना चाहता जबकि अमीरों का छोटा सा छोटा दुःख भी सभी को बड़ा लगता है और वह उसके प्रति संवेदना प्रकट करने के लिए तत्पर रहते हैं।
यह हमारे समाज की विडंबना है और लोगों की यही दोहरे मापदंड वाली सोच सामाजिक समानता के ताने-बाने पर चोट पहुँचाती है।
टिप्पणी
‘दुःख का अधिकार’ कहानी ‘यशपाल’ द्वारा लिखी गई एक ऐसी कहानी है, जो समाज के लोगों द्वारा अमीरों और गरीबों के दुःख के प्रति लोगों के दोहरे मापदंड को उजागर करती है।