लेखक ने बातचीत की कला में प्रवीण ना होने को मनुष्य के लिए खेद का विषय माना है। लेखक के अनुसार यह अत्यंत खेद का विषय है कि जिस कला में प्रवीण होने पर मनुष्य को सर्वाधिक लाभ प्राप्त हो सकता है, वह उसी कला में वह प्रवीण नहीं हो पाता और वही कला उसके जीवन में सबसे अधिक अपेक्षित रहती है।
लेखक के अनुसार बड़ी-बड़ी किताबें रटकर बड़ी-बड़ी डिग्रियां प्राप्त करने के बाद भी अनेक लोग ऐसे होते हैं, जो बातचीत की कला में निपुण नहीं होते। इसी कारण वह अपने जीवन में उन्नति नहीं कर पाते, जबकि कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो बहुत अधिक पढ़े-लिखे नहीं होते, लेकिन अपनी बातचीत की कला में निपुण होने के गुण के कारण और अपनी व्यवहार कुशलता के बल पर उन्नति के शिखर पर पहुंच जाते हैं।
लेखक ने इसी बात को खेद का विषय माना है कि अधिक पढ-लिखकर भी लोग बातचीत की कला में निपुण नहीं हो पाते और हर मनुष्य अपने इस स्वाभाविक गुण का पूरी तरह लाभ नहीं उठा पाता।
टिप्पणी
‘बातचीत की कला’ पाठ लेखक कृष्ण चंद्र आर्य और मनवाती आर्य द्वारा लिखित ऐसा निबंधात्मक पाठ है, जिसमें लेखक ने अनेक उदाहरणों और अपने विवेचन द्वारा बातचीत की कला के महत्व को रेखांकित किया है।
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